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आमदे सरकार पर खुशियों के तराने

आमदे सरकार पर खुशियों के तराने आमदे सरकार पर इजहारे मसर्रत  शाने नबवी के क्या कहने ! अश्आ़र का हुक्म  कैसे अश्आर दुरुस्त हैं ? तारीफे खुदा व रसूल पर मुश्तमिल अश्ार को क्या कहते हैं ? सरकार की शान ब जबाने कुरआन पहली आयते मुबारका  दूसरी आयते मुबारका  तीसरी आयते मुबारका चौथी आयते मुबारका अजमते सरकार का इजहार बजबाने सहाबियात सरकार की वालिदए माजिदा जनाबे शय्यिदतुना आमिना के अश्आर सरकार की रिजाई बहन जनाबे शय्यिदतुना शैमा का कलाम  सय्यिदतुना आइशा सिद्दीका के अश्आर वफ़ाते जाहिरी के बा'द सहाबियात का कलाम  सरकार की फूफी जनाबे सय्यिदतुना अरवा के अश्आर  हजरते हिन्द बिन्ते हारिश बिन अब्दुल मुत्तलिब का कलाम  ह़ज़रते आ़तिका बिन्ते जै़द का कलाम  इस्लामी बहनों का ना'त पढ़ना कैसा ? इस्लामी बहनें माईक इस्ति'माल न करें । औरत केराग की आवाज  ना'त लिखना कैसा ?  ऐरजा खुद साहिबे कुरआं है महाहे हुजूर   ना'त गोई अले महब्बत का काम है  किस का लिखा कलाम पढ़ना चाहिये ?  ना'त ख्वानी और नजराना  तै न किया हो तो   “ तसव्वुरे मदीना कीजिये " के 14 हुरूफकी निरखत से ना'त पढ़ने की चौदह निय्यतें   " ना'ते रसूले पाक " के 10 हुरूफ़की निस्बत से ना'त सुनने की दस निय्यतें गानों की आदी ना'त ख्वा कैसे बनी ?

आमदे सरकार पर खुशियों के तराने

दा'वते इस्लामी के इशाअती इदारे मक्तबतुल मदीना की मत़बूआ़ 107 सफ़हात पर मुश्तमिल किताब आईनए कि़यामत सफ़हा 27 पर है : हुजूर सरवरे आलम ﷺ ने काफ़िरों की ईज़ा देही और तक्लीफ़ रसानी की वज्ह से मक्कए मुअज्जमा से हिजरत फ़रमाई । मदीने वालों ने जब येह खबर सुनी , दिलों में मसर्रत आमेज़ उमंगों ने जोश मारा और आंखों में शादिये ईद का नक्शा खिंच गया , आमद आमद का इन्तिज़ार लोगों को आबादी से निकाल कर पहाड़ों पर ले जाता , मुन्तज़िर आंखें मक्के की राह को जहां तक उन की नज़र पहुंचती , टिकटिकी बांध कर तकतीं और मुश्ताके दिल हर आने वाले को दूर से देख कर चौंक पड़ते , जब आफ्ताब गर्म हो जाता , घरों पर वापस आते । इसी कैफ़िय्यत में कई दिन गुज़र गए , एक दिन और रोज़ की तरह वक्त बे वक्त हो गया था और इन्तिज़ार करने वाले हसरतों को समझाते , तमन्नाओं को तस्कीन देते पलट चुके थे , कि एक यहूदी ने बुलन्दी से आवाज़ दी : “ ऐ राह देखने वालो ! पलटो ! तुम्हारा मक्सूद बर आया और तुम्हारा मतलब पूरा हुवा । " इस सदा के सुनते ही वोह आंखें जिन पर अभी हसरत आमेज़ हैरत छा गई थी , अश्के शादी बरसा चलीं , वोह दिल जो मायूसी से मुरझा गए थे , ताज़गी के साथ जोश मारने लगे , बे कराराना पेशवाई को बढ़े , परवाना वार कुरबान होते आबादी तक लाए , अब क्या था खुशी की घड़ी आई , मुंह मांगी मुराद पाई , घर घर से नगमाते शादी की आवाजें बुलन्द हुईं , लड़कियां दफ़ बजाती , खुशी के लहजों में मुबारक बाद के गीत गाती निकल आई 
वदाअ़  के टीलों से हम पर एक चांद तुलूअ हुवा जब तक अल्लाह से दुआ मांगने वाले दुआ मांगते रहेंगे हम पर खुदा का शुक्र वाजिब है । 

सीरते मुस्तफा में इस के इलावा येह अश्आर भी दर्ज हैं :
 ऐ वोह जाते गिरामी जो हमारे अन्दर मबऊस किये गए ! आप ﷺ वोह दीन लाए हैं जो इताअत के काबिल है , आप ने मदीने को मुशर्रफ़ फ़रमा दिया , आप के लिये खुश आमदीद है ऐ बेहतरीन दा'वत देने वाले !
हम लोगों ने यमनी कपड़े पहने हालांकि इस से पहले पैवन्द जोड़ जोड़ कर कपड़े पहना करते थे तो आप पर अल्लाह तआला उस वक्त तक रहमतें नाज़िल फ़रमाए जब तक अल्लाह के लिये कोशिश करने वाले कोशिश करते रहें । 

आमदे सरकार पर इजहारे मसर्रत 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! महबूबे रब्बे दावर , शफ़ीए रोजे महशर ﷺ की आमद पर अन्सार की बच्चियों ने जिस वालिहाना अन्दाज़ में इज़हारे मसर्रत किया वोह यक़ीनन अपनी मिसाल आप है और इन बच्चियों के वोह पुर मसर्रत अश्आर आज भी हमारे लिये तस्कीने जां का बाइस हैं । आमदे सरकार पर खुशियों के सिर्फ येही तराने अन्सारी बच्चियों के विर्दे ज़बान नहीं थे बल्कि मदीनए मुनव्वरा को बुक्अ़ए नूर बनाने पर मरहबा कहते हुवे बनी नज्जार की लड़कियां गली कूचों में यूं इज़हारे मसर्रत कर रही थीं :
हम क़बीलए बनी नज्जार की बच्चियां हैं हज़रते सय्यिदुना मुहम्मद ﷺ कैसे अच्छे पड़ोसी हैं ।

शाने नबवी के क्या कहने !

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! इस दुन्याए फ़ानी में मख्लूक को ख़ालिक़ से मिलाने के लिये बहुत से अम्बियाए किराम व रुसुले उज्जाम तशरीफ़ लाए । अल्लाह ने उन में से हर नबी व रसूल को मुख़्तलिफ़ कमालात व मो'जिज़ात से नवाज़ा । मसलन किसी नबी को हुस्नो जमाल में कमाल अता फ़रमाया तो किसी को जाहो जलाल ( शानो शौकत ) में । किसी को सल्तनत व माल से नवाज़ा तो किसी को रिफ्अत व अज़मत की दौलते ला ज़वाल से , मगर रब्बे लम यज़ल ने जब अपने महबूबे बे मिसाल ﷺ को इस ख़ाकदाने आलमे ज़वाल ( या'नी ख़त्म होने वाली खाकी ज़मीन ) में मबऊस फ़रमाया आप ﷺ न सिर्फ हुस्नो जमाल से नवाज़ा बल्कि जाहो जलाल ( शानो शौकत ) और जूदो नवाल ( अता व बख्रिाश ) की दौलत से भी खूब माला माल फ़रमाया । जैसा कि हज़रते सय्यिदुना जामी  ने क्या खूब कहा है : 
सरवरे आलम ﷺ हज़रते सय्यिदुना यूसुफ़ का हुस्न , हज़रते सय्यिदुना ईसा की फूंक और रौशन हाथ रखते हैं , ( येही नहीं बल्कि ) जो कमालात वोह सारे नबी व रसूल रखते हैं आप अकेले रखते हैं ।

खुदा ने एक मुहम्मद में दे दिया सब कुछ 
करीम का करम बे हिसाब क्या कहना 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! जब ऐसी शानों वाले नबी ने अन्सार के हां कदम रन्जा फ़रमाया तो उन के हां खुशियों का समां क्यूं न होता और उन की बच्चियां शौको वज्द में क्यूं न महब्बत व इश्क से भरपूर तराने गाती ? क्यूंकि वोह नबी  तो ऐसे थे जिन के बारे में किसी ने क्या खूब कहा है : 
खलीलुल्लाह ने जिस के लिये हक से दुआएं की 
ज़बीहुल्लाह ने वक्ते जब्ह जिस की इल्तिजाएं की 
जो बन कर रौशनी फिर दीदए याकूब में आया 
जिसे यूसुफ ने अपने हुस्न के नैरंग में पाया 
वोह जिस के नाम से दावूद ने नगमा सराई की 
वोह जिस की याद में शाह सुलैमान ने गदाई की 
दिले यहूया में अरमान रह गए जिस की ज़ियारत के 
लबे ईसा पे आए वा ' ज़ जिस की शाने रहमत के 

अश्आ़र का हुक्म

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! देखा आप ने ! सरवरे काइनात , फ़ख्ने मौजूदात  की शान में अले मदीना की बच्चियों ने अपने जज्बात का इज़हार अश्आर में कैसे किया ? याद रखिये ! दिली जज्बात की अक्कासी करने वाला कलाम दो तरह का होता है । एक को नस् कहते हैं जब कि दूसरा अश्आर की शक्ल में होता है और उसे नज़्म कहते हैं । अश्आर अच्छे भी होते हैं और बुरे भी , मगर याद रखिये ! कोई शै बसा औकात अपनी ज़ात की वज्ह से अच्छी या बुरी नहीं होती बल्कि सवाब व इताब का हुक्म उस चीज़ पर मौकूफ़ होता है जो उस से अदा की जाए । मसलन हुरूफे तहज्जी को देख लें कि इन्हें किसी खास मा'ना के लिये वज्अ नहीं किया गया बल्कि येह तो मुख्तलिफ़ मआनी को अदा करने का आला हैं , जैसे मा'ना चाहें इन से अदा कर सकते हैं ख्वाह अच्छे हों या बुरे यहां तक कि ईमान से कुफ्र तक का मा'ना भी इन्ही हुरूफ़ से अदा होता है , लिहाज़ा मुतलकन हुरूफ़ को हसन या क़बीह ( अच्छे या बुरे ) होने के साथ मौसूफ़ नहीं कर सकते बल्कि येह मद्ह व ज़म ( तारीफ़ व मज़म्मत ) और सवाब व इक़ाब में उस चीज़ के ताबेअ होते हैं जो इन से अदा की जाए , जैसे तल्वार बहुत अच्छी है अगर इस से हिमायते इस्लाम की जाए और सख़्त बुरी है अगर खूने ना हक़ में बरती जाए । जैसा कि हदीसे पाक में है : शे'र ब मन्ज़िलए कलाम के है तो इस का अच्छा मिस्ल अच्छे कलाम के और इस का बुरा मिस्ल बुरे कलाम के । लिहाज़ा अश्आर पर फी नपिसहा अच्छे या बुरे होने का कोई हुक्म नहीं हो सकता बल्कि येह अदा किये गए मफ्हूम के ताबेअ होंगे । क्यूंकि बा'ज़ शे'र हिक्मत भरे भी होते हैं जैसा कि हदीसे सहीह में

इरशाद होता है : बा'ज़ अश्आर हिक्मत वाले होते हैं , और दूसरी तरफ़ अगर बेहूदा बातों और लगवियात पर मुश्तमिल शाइरी की जाए तो फ़रमाया गया । वहां अल्लाह हज़रते सय्यिदुना जिब्रील के जरीए हज़रते सय्यदुना हस्सान बिन साबित की ताईद करता है । ) की बशारते जांफ़िज़ा है और दूसरी तरफ़ इम्र उल कैस शाइरों का अलमबरदार आतिशे दोज़ख में है की वईदे जांगुज़ा ( जान को तक्लीफ़ देने वाली धमकी ) ।

 कैसे अश्आर दुरुस्त हैं ?

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! मा'लूम हुवा अगर अश्आर में अल्लाह व रसूल की तारीफ़ हो या उन में हिक्मत की बातें हों या अच्छे अख़्लाक़ की ता'लीम हो तो अच्छे हैं और अगर लग्व व बातिल पर मुश्तमिल हों तो बुरे हैं । अक्सर शुअरा चूंकि ऐसे ही बेतुकी हांकते हैं इस वज्ह से उन की मज़म्मत की जाती है  
जो अश्आर मुबाह हों उन के पढ़ने में हरज नहीं । अश्आर के पढ़ने से अगर येह मक्सूद हो कि इन के जरीए से तफ्सीर व हदीस में मदद मिले या'नी अरब के मुहावरात और उस्लूबे कलाम से आगाह हो , जैसा कि शुअराए जाहिलिय्यत के कलाम से इस्तिद्लाल किया जाता है , इस में भी कोई हरज नहीं ।
अल गरज़ अश्आर पर मुश्तमिल कलाम तीन तरह का होता है : 
मुस्तहब कलाम : इस से मुराद वोह कलाम है जो दुन्या से बचाए और आख़िरत की रगबत दिलाए या अच्छे अख़्लाक़ पर उभारे , वोह मुस्तहब होता है । 
मुबाह कलाम : इस से मुराद वोह कलाम है जिस में फोहश और झूट न हो । 
ममनूअ कलाम : इस की दो अक्साम हैं : झूट और फोहूश और इन दोनों के कहने वालों को ऐब लगाया जाएगा और अगर कोई हालते इज़तिरार में पढ़ रहा हो तो मा'यूब ( ऐबदार ) नहीं लेकिन इख़्तियार से पढ़ने वाला मा'यूब ( बुरा , बाइसे नदामत ) है अलबत्ता ! जो कलाम अल्लाह की इताअत , सुन्नत की पैरवी , बिदअत से इजतिनाब और अल्लाह की नाफरमानी से बचने पर उभारे , वोह इबादत है और इसी तरह जो कलाम सरकार ﷺ की तारीफ़ पर मुश्तमिल हो वोह भी इबादत है । 

तारीफे खुदा व रसूल पर मुश्तमिल अश्ार को क्या कहते हैं ?

 कलाम ( नर या नज्म ) का वोह हिस्सा या जुज़ या जिस में खुदा की तारीफ़ व सिपास ( शुक्र गुज़ारी ) हो , जिस कलाम में खुदावन्दे तआला की बड़ाई और कुदरत और खुदाई और उस के कमाल व जलाल का बयान हो इस को हम्द - सना कहते हैं ।
जब कि वोह मौजू कलाम जिस में सरवरे दो जहां  की मद्ह व तारीफ़ की गई हो या आप  के औसाफ़ व शमाइल का बयान हो , नीज़ आप ﷺ की ज़ात या आप से मन्सूब किसी चीज़ से महब्बत व अकीदत का इज़हार हो तो उसे ना'त कहते हैं । 
मुफस्सिरे शहीर , हकीमुल उम्मत मुफ्ती अहमद यार खान  फ़रमाते हैं : अल्लाह तआला की तारीफ़ को हम्द कहते हैं , हुजूर  की तारीफ़ को ना'त कहते हैं , बुजुर्गाने दीन की तारीफ़ को मन्क़बत कहा जाता है ख़्वाह नस्र में हो या नज़्म में । 

सरकार की शान ब जबाने कुरआन

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! कुरआने करीम में जा बजा अल्लाह के प्यारे हबीब  की अजमतो शान की मिसालें मजकूर हैं । 
जैसा कि आ'ला हज़रत फ़रमाते हैं : 
ऐ रजा खुद साहिबे कुरआं है मद्दाहे हुजूर 
तुझ से कब मुमकिन है फिर मिदहृत रसूलुल्लाह की 
यहां जेल में चन्द आयाते मुबारका पेशे ख़िदमत हैं 

पहली आयते मुबारका 

दो जहां के ताजवर , सुल्ताने बहरो बर  की आमद से क़ब्ल ही अल्लाह ने तमाम नबियों और रसूलों से येह अदो पैमान ले लिया कि तुम सब दुन्या में मेरे महबूब की तशरीफ़ आवरी का चर्चा करते रहना , इन की नुस्त व रफ़ाक़त के लिये हर दम कमरबस्ता रहना और इन पर ईमान ला कर अपने सीनों में इन की महब्बत को आबाद रखना । जैसा कि फ़रमाने बारी तआला है : 
और याद करो जब अल्लाह ने पैगम्बरों से इन का अह्द लिया जो मैं तुम को
किताब और हिक्मत दूं फिर तशरीफ़ लाए तुम्हारे पास वोह रसूल कि तुम्हारी किताबों की तस्दीक़ फ़रमाए तो तुम ज़रूर ज़रूर उस पर ईमान लाना और ज़रूर ज़रूर उस की मदद करना । 

आ'ला हज़रत इमामे अहले सुन्नत , मुजद्दिदे दीनो मिल्लत , परवानए शम्ए रिसालत मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खान suicide क्या खूब इरशाद फ़रमाते हैं :

सब से औला व आ'ला हमारा नबी 
सब से बाला व वाला हमारा नबी 
खल्क से औलिया , औलिया से रुसुल 
और रसूलों से आ'ला हमारा नबी  
ताजदारों का आका हमारा नबी 

दूसरी आयते मुबारका 

मैदाने महशर में शाने मुस्तफ़ाई के डंके का एलान करते हुवे अल्लाह ने इरशाद फ़रमाया :
करीब है कि तुम्हें तुम्हारा रब ऐसी जगह खड़ा करे जहां सब तुम्हारी हम्द करें ।
फ़क़त इतना सबब है इनइक़ादे बज़्मे महशर का कि उन की शाने महबूबी दिखाई जाने वाली है 
ब खुदा ख़ुदा का यही है दर , नहीं और कोई मफ़र मकर जो वहां से हो यहीं आ के हो , जो यहां नहीं तो वहां नहीं 

तीसरी आयते मुबारका

 सारे जहान के लिये आप  का बाइसे रहमत होना इस फ़रमान से ब खूबी वाजेह है :
और हम ने तुम्हें न भेजा मगर रहमत सारे जहान के लिये । 
रहमत रसूले पाक की हर शै पे आम है हर गुल में हर शजर में मुहम्मद का नाम है 

चौथी आयते मुबारका

 सय्यिदुल महबूबीन  का ज़िक्र नूरे ईमान व सुरूरे जान है और आप  का ज़िक्र बिऐनिही ज़िक्रे रहमान है । अल्लाह फ़रमाता है : 
और हम ने तुम्हारे लिये तुम्हारा ज़िक्र बुलन्द कर दिया ।

अल्लाह अल्लाह आप का रुत्बा صَلَّی اللّٰهُ عَلَیہِ وَسَلَّم
पढ़ती है दुन्या रुत्बे का खुत्बा صَلَّی اللّٰهُ عَلَیہِ وَسَلَّم

हदीस शरीफ़ में है कि इस आयते करीमा के नजूल के बाद सय्यिदुना जिब्राईले अमीन - हाज़िरे बारगाह हुवे और अर्ज की : आप का रब फ़रमाता है : क्या तुम जानते हो कि मैं ने कैसे बुलन्द किया तुम्हारे लिये तुम्हारा ज़िक्र ? नबिय्ये करीम  ने जवाब दिया : اللّٰهُ اَعْلَم  इरशाद हुवा : “ ऐ महबूब मैं ने तुम्हें अपनी यादों में से एक याद किया कि जिस ने तुम्हारा जिक्र किया बेशक उस ने मेरा जिक्र किया । " 
सुल्ताने जहां , महबूबे ख़ुदा तेरी शानो शौकत क्या कहना 
हर शै पे लिखा है नाम तेरा , तेरे ज़िक्र की रिफ्अत क्या कहना 
صَلُّوْا عَلَی الْحبِیْب ! صَلَّی اللّٰهُ تَعا لٰی عَلیٰ مُحَمَّد

अजमते सरकार का इजहार बजबाने सहाबियात

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! हुजूरे अक्दस ﷺ को अल्लाह ने जिस तरह कमाले सीरत में तमाम अव्वलीनो आख़िरीन से मुमताज़ और अफ़्ज़लो आ'ला बनाया इसी तरह आप  को जमाले सूरत में भी बे मिस्ल व बे मिसाल पैदा फ़रमाया । हम और आप हुजूरे अकरम  की शाने बे मिसाल को भला क्या समझ सकते हैं ? हज़राते सहाबए किराम जो दिन रात सफ़र व हज़र में जमाले नुबुव्वत की तजल्लियां देखते रहे उन्हों ने महबूबे खुदा  के जमाले बे मिसाल के फज्लो कमाल को जिस तरह बयान किया है वोह भी अपनी मिसाल आप है । जैसा कि हज़रते सय्यिदुना हस्सान बिन साबित ने अपने कसीदे में जमाले नुबुव्वत की शाने बे मिसाल को यूं बयान फ़रमाया है : 
या रसूलल्लाह ﷺ ! आप से ज़ियादा हुस्नो जमाल वाला मेरी आंख ने कभी देखा है न आप से ज़ियादा कमाल वाला किसी औरत ने जना है । 
या रसूलल्लाह ﷺ ! आप हर ऐब व नक्स से पाक पैदा किये गए हैं गोया आप ऐसे ही पैदा किये गए जैसे हसीनो जमील पैदा होना चाहते थे 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! सरकारे मदीना  की ख़िदमते आलीशान में सिर्फ सहाबए किराम ने ही अश्आर की शक्ल में नज़रानए अकीदत पेश नहीं किया बल्कि सहाबियाते तय्यिबात भी इस सफ़ में किसी से पीछे नहीं । चुनान्चे , जैल में चन्द मिसालें पेशे ख़िदमत हैं : | 

सरकार की वालिदए माजिदा जनाबे शय्यिदतुना आमिना के अश्आर

आ'ला हज़रत , इमामे अहले सुन्नत , मुजद्दिदे दीनो मिल्लत , परवानए शम्ए रिसालत मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खान फ़तावा रज़विय्या शरीफ़ में फ़रमाते हैं : इमाम अबू नुऐम दलाइलुन्नुबुव्वत में ब तरीके मुहम्मद बिन शिहाब जोहरी , उम्मे समाआ अस्मा बिन्ते अबी रुम , वोह अपनी वालिदा से रावी हैं : ( कि मैं ) हज़रते आमिना ! के इन्तिकाल के वक्त ( उन के पास ) हाज़िर थी , मुहम्मद ﷺ कमसिन बच्चे कोई पांच बरस की उम्र शरीफ़ इन के सिरहाने तशरीफ़ फ़रमा थे । हज़रते खातून ने अपने इब्ने करीम ﷺ की तरफ़ नज़र की , फिर कहा :
ऐ सुथरे लड़के ! अल्लाह तुझ में बरकत रखे । ऐ उन के बेटे ! जिन्हों ने मर्ग ( मौत ) के घेरे से नजात पाई बड़े इन्आम वाले बादशाह अल्लाह की मदद से , जिस सुब्ह को कुरआ डाला गया 100 बुलन्द ऊंट उन के फ़िदये में कुरबान किये गए , अगर वोह ठीक उतरा जो मैं ने ख्वाब देखा है तो तू सारे जहान की तरफ़ पैग़म्बर बनाया जाएगा जो तेरे नेकूकार बाप इब्राहीम का दीन है , मैं अल्लाह की कसम दे कर तुझे बुतों से मन्अ करती हूं कि कौमों के साथ उन की दोस्ती न करना । 

सरकार की रिजाई बहन जनाबे शय्यिदतुना शैमा का कलाम 

मक्की मदनी सरकार ﷺ की रिज़ाई बहन हज़रते सय्यिदतुना शैमा सरवरे काइनात ﷺ से अपनी महब्बत का इज़हार यूं फ़रमाती हैं
जो इन्सान गुज़र चुके और जो आएंगे उन सब से बेहतर हज़रते मुहम्मद  हैं । मेरे आका हज व उमरह की सआदत पाने वालों में भी सब से आ'ला बल्कि हुस्नो जमाल में चांद से भी बढ़ कर हैं । आप  तो हर खूब सूरत और बहादुर मर्द व औरत से बढ़ कर गैरत वाले हैं । ऐ मेरे रब ! मुझे हवादिसे ज़माना से बचा कर मेरे लिये मेरे आका की राह को वाज़ेह फ़रमा दे । 

सय्यिदतुना आइशा सिद्दीका के अश्आर

एक रिवायत में उम्मुल मोमिनीन हज़रते सय्यिदतुना आइशा सिद्दीका MAI से ना'तिया कलाम पर मुश्तमिल येह अश्आर मरवी हैं :
अगर आप ﷺ के रुख्सार मुबारक के औसाफ़ अले मिस सुन लेते तो सय्यिदुना यूसुफ़ की कीमत लगाने में सीमो ज़र न बहाते और अगर जुलैखा को मलामत करने वाली औरतें आप  की जबीने अन्वर देख लेती तो हाथों के बजाए अपने दिल काटने को तरजीह देतीं

वफ़ाते जाहिरी के बा'द सहाबियात का कलाम 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! सरकारे मदीना ﷺ के विसाले बा कमाल पर सहाबियाते तय्यबात ने जिन अल्फ़ाज़ में आप के औसाफ़े हमीदा जिक्र किये इन से ज़ाहिर होता है कि उन्हें अल्लाह के प्यारे हबीब  से कितना गहरा कल्बी लगाव और महब्बत थी । जैल में सहाबियाते तय्यबात के चन्द कलाम पेशे ख़िदमत हैं : 

सरकार की फूफी जनाबे सय्यिदतुना अरवा के अश्आर 

सरवरे काइनात , फ़ख्ने मौजूदात ﷺ की फूफी हज़रते सय्यिदतुना अरवा बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब का शुमार उन साहिबे फ़ज़्ल खुवातीन में होता है जिन्हें इस्लाम से कब्ल ज़मानए जाहिलिय्यत में भी कद्र की निगाह से देखा जाता था , आप साइबुर्राए थीं और अमीरुल मोमिनीन हज़रते सय्यिदुना उमर फ़ारूक़  के ज़माने तक हयात रहीं । आप से बहुत ही उम्दा अश्आर मरवी हैं । चुनान्चे , आप ने अल्लाह के महबूब  की याद में कई कलाम कहे , इन में से एक कलाम के चन्द अश्आर पेशे ख़िदमत हैं :

रसूलल्लाह  आप हमारी उम्मीद और हमारे साथ अच्छा सुलूक करने वाले थे और बिल्कुल सख़्त मिज़ाज न थे । आप हमारे नबी हैं और आप हम पर कमाल मेहरबानी व रहम फ़रमाने वाले थे , आज ( हम आप के दीदार से महरूम हो गए हैं , लिहाजा ) अब हर रोने वाले को चाहिये कि आप की याद में अश्क बहाए । आप की उम्र की कसम ! मैं अपने आका के जहाने फ़ानी से कूच कर जाने के बाइस नहीं रोती बल्कि मुझे तो उन मसाइब व आफ़ात पर रोना आता है जो आप के बाद हम पर नाज़िल होंगी । गोया मेरा दिल आका ﷺ की याद में तड़पने और इन के बाद दरपेश मसाइबो आफ़ात का खौफ़ लाहिक होने की वज्ह से दागदार होता जा रहा है । मेरी मां , मेरी ख़ाला , मेरे चचा , मेरे आबाओ अजदाद बल्कि मेरी जान और माल सब कुछ मेरे आका पर कुरबान , आप ने सब्रो इस्तिकामत का दामन हमेशा थामे रखा और आखिरे कार अल्लाह के पैगाम को रास्ती के साथ हर एक तक पहुंचा कर दीन को उस्तुवार फ़रमाया और उसे खूब वाह कर दिया । अगर तमाम लोगों का पालनहार हमारे नबी Asia को हमारे पास मजीद रहने देता तो येह हमारी खुश किस्मती होती मगर उस का हमारे मुतअल्लिक किया गया फैसला पूरा हो कर ही रहना था । आप पर अल्लाह की तरफ़ से सलामे तहिय्यत हो और आप को जन्नते अदन में दाखिल किया जाए इस हाल में कि आप राजी हों । 

हजरते हिन्द बिन्ते हारिश बिन अब्दुल मुत्तलिब का कलाम 

हज़रते सय्यिदतुना हिन्द बिन्ते हारिस Lidis सरकारे मदीना , करारे कल्बो सीना  की चचाज़ाद बहन थीं , आप  बारगाहे नुबुव्वत में अपनी महब्बत का इज़हार कुछ यूं फ़रमाती हैं ऐ मेरी आंख ! ऐसी फ़य्याजी से आंसू बहा जैसे अब्रे बारां बरसता है तो हर तरफ़ पानी बहने लगता है । या फिर उस पुराने कुंवें की तरह हो जा जिस का मुंह तो ऊपर से बन्द हो गया हो मगर अन्दरूनी नालियों में उस का पानी बहता हो । मुझे येह मुसीबत भरी खबर मिली है कि हज़रते आमिना के बरकत वाले फ़रज़न्द इस जहाने फ़ानी से कूच फ़रमा गए हैं । वोह साहिबे युम्नो बरकत अब एक कब्र में हैं , जिन पर लोगों ने ख़ाक का लिहाफ़ ओढ़ा दिया है । क्या तुम सब में वोह शरीफ़ घराने के न थे ? क्या ननहियाल व ददहियाल में वोह ऐसी शराफ़त के मालिक न थे कि जिस में किसी किस्म की कोई परागन्दगी न थी ।

हजरते उनमे ऐमन के फिराके महबूबे ख़ुदा पर कहे गए अश्भार

सय्यिदतुना उम्मे ऐमन उम्मुल मोमिनीन हज़रते सय्यिदतुना ख़दीजा की बांदी थीं जिन्हें इन्हों ने सरकार  को हिबा कर दिया तो सरकार  ने उन्हें अपनी रिज़ाई वालिदा होने की वज्ह से आज़ाद फ़रमा दिया , आप Aisanliadesisax जब भी उन की तरफ़ देखते तो फ़रमाते कि बस येही मेरे अले खाना में से बाकी बची हैं ( या'नी बाकी सब जहाने फ़ानी से कूच फ़रमा चुके हैं ) । नीज़ येह हज़रते सय्यिदुना उसामा बिन जैद Susils की वालिदए माजिदा भी हैं । चुनान्चे , बारगाहे नुबुव्वत में अपनी महब्बत का इज़हार कुछ यूं फ़रमाती हैं :  ऐ आंख ! अच्छी तरह रो कि रोना ही शिफ़ा है , लिहाज़ा रोने में ज़ियादती कर । जब लोगों ने कहा कि रसूले खुदा  चले गए तो ऐसे लगा गोया हर किस्म की मुसीबत टूट पड़ी हो । ऐ दोनों आंखो ! उस हस्ती पर अश्क बहाओ जो हर उस शख्स से बेहतर थी जिस की मुसीबत दुन्या में हम पर नाज़िल हुई , बल्कि वोह हस्ती तो हर उस नबी से भी बेहतर थी जिसे आस्मानी वय से ख़ास किया गया था । इस क़दर अश्क बहाओ कि अल्लाह तुम्हारे हक़ में भी बेहतर फैसला फ़रमा दे , मैं जानती हूं कि हुजूर  रहमत बन कर और रौशनी ले के तशरीफ़ लाए थे । इस क़दर ही नहीं बल्कि आप ﷺ तो तारीकी में  चमकने वाले सिराज व नूर थे । आप ﷺ पाक ख़स्लत, पाक मनिश (मिज़ाज), पाक ख़ानदान, पाक आदत और नबिय्ये आख़िरुज्जमान थे । 

ह़ज़रते आ़तिका बिन्ते जै़द का कलाम 

ह़ज़रते सय्यदतुना आ़तिका बिन्ते जै़द बिन अ़म्र बिन नुफै़ल ह़ज़रते सय्यिदुना उमर फ़ारूक़ की चचाज़ाद बहन और ह़ज़रते अ़ब्दल्लाह बिन अबू बर्क सिद्दीक़ की  ज़ौजए मोहतरमा थीं , बारगाहे नुबुव्वत में अपनी महब्बत का इज़हार कुछ यूं फ़रमाती हैं : सुवारियां मुतवहिहश ( वहशत अंगेज़ ) हुई जा रही हैं कि जिन पर हुजूर صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ‎  सुवार होते तो इन की शान बढ़ जाती । आप صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ‎  के विसाले बा कमाल पर आंखें हैं कि रोती ही जा रही हैं और आंसू लगातार जारी हैं । ऐ रसूले खुदा صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ‎ ! आप की अज़वाजे मुतहहरात की हालत येह हो गई है कि उन्हें फ़र्ते रंजो गम से इफ़ाक़ा होता ही नहीं , बल्कि रंज है कि बढ़ता ही जाता है । वोह फर्ते गम से इस तरह दुब्ली पतली हो गई हैं जैसे कोई बेकार और बे रंग धागा हो । ब ज़ाहिर वोह अपने दुख पर काबू पाने की कोशिश कर रही हैं मगर उन का येह हुज्नो मलाल ( गम ) जल्दी जाने वाला नहीं बल्कि वोह तो उन के सीने में कैद है । वोह अपनी हथेलियों में चेहरे छुपाए हुवे हैं , ऐसी हालत में ऐसा ही होता है । हुजूर صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ‎  साहिबे फ़ज़्लो सरदार और बरगुज़ीदा थे , उन का दीन हक़ पर मुज्तमेअ था । अब मैं आप Laagchine के बाद जिन्दा कैसे रहूंगी ! आप صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ‎  तो इस जहाने फ़ानी से कूच फ़रमा गए हैं । 

इस्लामी बहनों का ना'त पढ़ना कैसा ?

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! ना'त ख्वानी आ'ला दरजे की चीज़ है । अच्छी अच्छी निय्यतें कर के ना'त शरीफ़ पढ़ना और सुनना बाइसे सवाबे आख़िरत और मूजिबे खैरो बरकत है ।तब्लीगे कुरआनो सुन्नत की आलमगीर गैर सियासी तहरीक दा'वते इस्लामी के महके महके मदनी माहोल की बरकत से इस्लामी बहनों के दिलों में इश्के मुस्तफ़ा की जो शम्अ रौशन हुई है उस की रौशनी घर घर तक पहुंच चुकी है । इस मदनी माहोल में एक से एक खुश आवाज़ ना'त ख्वान इस्लामी बहनें सरकारे मदीना صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ को चाहने वालियों के कुलूब को गर्माती और उन्हें इश्के मुस्तफ़ा में तड़पाती हैं । मगर ऐसी तमाम इस्लामी बहनों को शैखे तरीक़त अमीरे अहले सुन्नत की येह बातें हमेशा याद रखनी चाहियें जो आप ने दा'वते इस्लामी के इशाअती इदारे मक्तबतुल मदीना की मतबूआ 400 सफ़हात पर मुश्तमिल किताब पर्दे के बारे में सुवाल जवाब सफ़हा 254 ता 256 पर सुवालन जवाबन यूं तहरीर की हैं : 
सुवाल : इस्लामी बहनें इस्लामी बहनों में ना'तें पढ़ सकती हैं या नहीं ? 
जवाब : इस्लामी बहनें , इस्लामी बहनों में बिगैर माईक के इस तरह ना'त शरीफ़ पढ़ें कि उन की आवाज़ किसी गैर मर्द तक न पहुंचे । माईक का इस लिये मन्अ किया कि इस पर पढ़ने या बयान करने से गैर मर्दो से आवाज़ को बचाना करीब करीब ना मुमकिन है । कोई लाख दिल को मना ले कि आवाज़ शामियाने या मकान से बाहर नहीं जाती मगर तजरिबा येही है कि लाऊड स्पीकर के जरीए औरत की आवाज़ उमूमन गैर मर्दो तक पहुंच जाती है बल्कि बड़ी महाफ़िल में माईक का निज़ाम भी तो अक्सर मर्द ही चलाते हैं ! सगे मदीना को एक बार किसी ने बताया कि फुलां जगह महफ़िल में एक साहिबा माईक पर बयान फ़रमा रही थीं , बा'ज़ मर्दो के कानों में जब उस निस्वानी आवाज़ ने रस घोला तो उन में से एक बे हया बोला : आहा ! कितनी प्यारी आवाज़ है !! जब आवाज़ इतनी पुर कशिश है तो खुद कैसी होगी !!! وَلَا حَوْلَ وَلَا قُوَّۃَ اِلَّابِاللہِ

इस्लामी बहनें माईक इस्ति'माल न करें ।

 याद रहे ! दा'वते इस्लामी की तरफ़ से होने वाले सुन्नतों भरे इजतिमाआत और इजतिमाए ज़िक्रो ना'त में इस्लामी बहनों के लिये लाऊड स्पीकर के इस्ति'माल पर पाबन्दी है । लिहाज़ा इस्लामी बहनें जेह्न बना लें कि कुछ भी हो जाए न लाऊड स्पीकर में बयान करना है और न ही इस में नात शरीफ़ पढ़नी है । याद रखिये ! गैर मर्दो तक आवाज़ पहुंचती हो इस के बा वुजूद बे बाकी के साथ बयान फ़रमाने और ना तें सुनाने वाली गुनहगार और सवाब के बजाए अज़ाबे नार की हक़दार है । मेरे आका आ'ला हज़रत की ख़िदमत में अर्ज की गई : चन्द औरतें एक साथ मिल कर घर में मीलाद शरीफ़ पढ़ती हैं और आवाज़ बाहर तक सुनाई देती है , यूंही मुहर्रम के महीने में किताबे शहादत वगैरा भी एक साथ आवाज़ मिला कर ( या'नी कोरस में ) पढ़ती हैं , येह जाइज़ है या नहीं ? मेरे आका आ'ला हज़रत رحمۃ اللہ علیہ ने जवाबन इरशाद फ़रमाया : नाजाइज़ है कि औरत की आवाज़ भी औरत ( या'नी छुपाने की चीज़ ) है और औरत की खुश इल्हानी कि अजनबी सुने महल्ले फ़ितना है । 

औरत केराग की आवाज 

शैखे तरीक़त , अमीरे अले सुन्नत मजी़द तह़रीर फ़रमाते हैं : मेरे आका आ'ला हज़रत رحمۃ اللہ علیہ एक और सुवाल के जवाब में इरशाद फ़रमाते हैं : औरत का ( ना ' वगैरा ) खुश इल्हानी से ब आवाज़ ऐसा पढ़ना कि ना महरमों को उस के नगमे ( या'नी राग व तरन्नुम ) की आवाज़ जाए हराम है । नवाज़िल फ़कीह अबुल्लैस समरकन्दी  में है : औरत का खुश आवाज़ कर के कुछ पढ़ना " औरत " या'नी महल्ले सित्र ( छुपाने की चीज़ ) है । काफ़ी इमाम अबुल बरकात नस्फ़ी में है : औरत बुलन्द आवाज़ से तल्बिया न पढ़े इस लिये कि इस की आवाज़ काबिले सित्र ( छुपाने के काबिल चीज़ ) है । अ़ल्लामा शामी फ़रमाते हैं : औरतों को अपनी आवाज़ बुलन्द करना , इन्हें लम्बा और दराज़ ( या'नी इन में उतार चढ़ाव ) करना , इन में नर्म लहजा इख्तियार करना और इन में तकतीअ करना ( काट काट कर तहलीली अरूज़ या'नी नज्म के कवाइद के मुताबिक़ ) अश्आर की तरह आवाजें निकालना , हम इन सब कामों की औरतों को इजाजत नहीं देते इस लिये कि इन सब बातों में मर्दो का उन की तरफ़ माइल होना पाया
जाएगा और उन मर्दो में जज्बाते शहवानी की तहरीक पैदा होगी इसी वज्ह से औरत को येह इजाजत नहीं कि वोह अज़ान दे ।

ना'त लिखना कैसा ? 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! कहने वालों ने शुअरा को ज़बान व बयान के हवाले से क़ौम का दिमाग और तर्जुमान भी कहा है बात अश्आर की अक्साम की हो तो ग़ज़ल , नज्म , क़सीदा , मस्नवी , रुबाई , कत्आ वगैरा एक लम्बी फेहरिस्त है लेकिन गज़ल की तारीफ़ में ज़मीनो आस्मान एक कर दिया जाता है , बल्कि आस्मान की बुलन्दी भी गज़ल की तारीफ़ में नाकाफ़ी लगती है , अर्श की बातें होती हैं , येह भी एहतियातन अर्ज की है वरना कोई हद ही नज़र नहीं आती । वाजेह रहे कि ग़ज़ल कहने वाले मज्जूब नहीं होते , इस के बा वुजूद इन्हें अपने ( ख़याली या मजाज़ी ) महबूब को सब कुछ कहने की न सिर्फ रिआयत दी जाती है बल्कि इन का हक़ माना जाता है और इस हक़ को हर शाइर बे बाकाना इस्ति'माल करता है । 

हमारे हां आम तौर पर ना'त भी ग़ज़ल ही के अन्दाज़ में कही जाती है , इस लिये वोह शुअरा जो हम्दो ना'त कहने की शराइत व आदाब से वाकिफ़ नहीं , हम्दो ना'त कहते हुवे गज़ल के महबूब वाली बे बाकी बरत जाते हैं और हम्दो ना'त में कहे गए अपने कलाम को शायद इल्हामी समझते हैं और बाला अज़ तन्कीद व तन्कीस जानते हैं । उन्हें नहीं मालूम ज़बान व बयान की आसानियां इस राह में ज़ियादा मुश्किल साबित होती हैं , मुमकिन है कि उन्हों ने कोई लफ़्ज़ फूल जान कर चुना हो मगर वोही कांटा हो जाए । इसी लिये इस राहे सुखन ( या'नी ना'तिया शाइरी ) को पुल सिरात की बताई जाने वाली सख़्तियों और मुश्किलात से ज़ियादा दुश्वार गुज़ार कहा गया है । यहां एहतिराम और सलीके के बिगैर जज्बे काम आते हैं न इल्म की ज़ियादती । यहां सिर्फ अदब नहीं बल्कि रूहे अदब और हुस्ने अदब कामयाब कराता है , येह ग़ज़ल का नहीं बल्कि ना'त का महबूब है जिस की महब्बत ईमान की जान है और ईमान बिलाशुबा सरासर अदब है , लिहाज़ा जब कोई इश्क के समन्दर में अदब की कश्ती पर सुवार होता है तो मकामे मुस्तफ़ा के अन्वार की झल्कियां उस के लौहे दिल पर जगमगाने लगती हैं , फिर नूर की येही रौशनी जब दिल से दिमाग की तरफ़ जाती है तो फ़िक्रे ना'त की ज़बां बन जाती है , मगर याद रखिये ! येह अदब , येह सलीका , इश्क को येह तहज़ीब , ईमान को येह मन्ज़िल किसी मक्बूले बारगाह के फैजे सोहबत और असरे निगाह से मिलती है । येह याद हो जाने और दिल में उतर जाने बल्कि वज़ीफ़ा बन जाने वाले मिस्रए या अश्आर हर कोई क्यूं नहीं कह पाता ? इमाम बूसैरी व शैख़ सा'दी رَ حْمَۃُاللہ تعالی عَلَیْھما के अश्आर पहले मक़बूल नहीं हुवे बल्कि येह हस्तियां पहले बारगाहे रिसालत में शरफे कबूलिय्यत पाने वाली हुई । 

ऐरजा खुद साहिबे कुरआं है महाहे हुजूर 

सहीह , सच्ची और उम्दा तारीफ़ सिर्फ रस्मी आलिम व शाइर हो जाने से मुमकिन नहीं , वोह इल्म और वोह मलकए शे'र सिर्फ उन्हीं का हिस्सा है जिन्हों ने अदब को मल्हूजे ख़ातिर रखा । लफ्ज़ों के सांचे , लहजों के ज़ाविये और अन्दाज़ो बयान के ऐसे करीने अभी कहां बन सके हैं जो ना'त के महबूबे करीम صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ की सहीह सच्ची और उम्दा तारीफ़ का हक़ अदा कर सकें । फिर मुबालगे का गुमान क्यूंकर दुरुस्त हो सकता है ? 
उस जाते वाला सिफ़ात की हकीकत जानने का दावा किसी मख्लूक का हिस्सा ही कहां है ? .... ऐ इन्सान ! इसे सआदत जान कि तुझे येह शरफ़ हासिल है कि इस बाब में ज़बान व कलम से अपनी बिसात ( ताकत ) के मुताबिक़ हदया पेश करने की ने'मत अता हुई , इस हस्ती की अजमत व मर्तबत का उम्र भर बयान करते रहने के बाद भी येह इक़रार किये बिगैर चारह नहीं कि ( मुमकिन ही नहीं कि आप की सना व तारीफ़ का जैसा हक़ है वोह हम से अदा हो सके ) मौलाना जामी भी येही कहते हैं : 
لَیْس کَلَامیِْ یفِ نِِعْمتِ کَمَالِہِ
صَلِّ اِلٰھی عَلَی النّبِیِّ وَاٰلِہ
और आ'ला हज़रत फ़ाज़िले बरेलवी رحمۃ اللہ علیہ यूं तर्जुमानी करते हैं : 
ऐ रजा खुद साहिबे कुरआं है मद्दाहे हुजूर तुझ से कब मुमकिन है फिर मिदहृत रसूलुल्लाह

 ना'त गोई अले महब्बत का काम है 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! आ'ला हज़रत , इमामे अले सुन्नत , मुजद्दिदे दीनो मिल्लत , परवानए शम्ए रिसालत मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खान को अपने आका से किस कदर महब्बत थी इस का अन्दाज़ा सिर्फ इसी बात से लगा लीजिये कि आप कभी अपने पाउं पसार ( फैला ) कर सोते नहीं थे , अपने वुजूद को समेट कर लफ्ज़ “ मुहम्मद " (  صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ ) की मक्तूबी शक्ल बना लिया करते थे , जिस रौशनाई से ना'त शरीफ़ लिखा करते थे उस में जा'फ़रान मिलाया करते थे । 
लिहाज़ा याद रखिये ! येह बातें जभी राह पाती हैं कि जिस्मे इन्सानी के बादशाह कल्ब ( दिल ) का क़िब्ला ( मर्कजे तवज्जोह ) जाते पाके रसूल  صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ  हो , फिर हरकात व सकनात ही नहीं ख़यालात व एहसासात भी हुब्बे रसूल से सरशार होते हैं । महब्बत की खासिय्यत और शर्त ही इताअत व इत्तिबाअ है । ( गोया कि ) फ़रमां बरदारी और पैरवी की लज्जत व हलावत अले महब्बत ही को मुयस्सर है । जिस की महब्बत बन्दे को मा'बूद का प्यारा बना दे , उस हस्ती की तारीफ़ का हक़ कैसे अदा हो सकता है ? मलकए शे'र या इल्म के कमाल से ज़ियादा इस बाब में करम ही की कार फ़रमाई सुर्खरू करती है । 

किस का लिखा कलाम पढ़ना चाहिये ? 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! मालूम हुवा ना'त शरीफ़ लिखना हकीक़तन निहायत मुश्किल है जिस को लोग आसान समझते हैं , इस में तल्वार की धार पर चलना है ! अगर बढ़ता है तो उलूहिय्यत ( शाने खुदावन्दी ) में पहुंचा जाता है और कमी करता है तो तन्कीस ( या'नी शाने रिसालत में कमी ) होती है । अलबत्ता हम्द आसान है कि इस में रास्ता साफ़ है जितना चाहे बढ़ सकता है । गरज हम्द में एक जानिब अस्लन हृद नहीं और ना'त शरीफ़ में दोनों जानिब सख्त हुद बन्दी है । 
लिहाज़ा किस किस शाइर की लिखी हुई ना'तें पढ़ना सुनना चाहिये ? इस हवाले से एक सुवाल का जवाब देते हुवे शैखे तरीक़त अमीरे अहले सुन्नत aplies दा'वते इस्लामी के इशाअती इदारे मक्तबतुल मदीना की मतबूआ 692 सफ़हात पर मुश्तमिल किताब कुफ्रिय्या कलिमात के बारे में सुवाल जवाब सफ़हा 236 पर फ़रमाते हैं : हर उस मुसलमान की लिखी हुई नात शरीफ़ पढ़नी सुननी जाइज़ है जो शरीअत के मुताबिक़ हो । अब चूंकि कलाम को शरीअत की कसोटी पर परखने की हर एक में सलाहिय्यत नहीं होती लिहाज़ा आफ़िय्यत इसी में है कि मुस्तनद उलमाए अले सुन्नत का कलाम सुना जाए । उर्दू कलाम सुनने के लिये मश्वरतन " ना'ते रसूल " के सात हुरूफ़ की निस्बत से 7 अस्माए गिरामी ( मअ मजमूअए ना'त ) हाज़िर हैं :

  1. इमामे अहले सुन्नत , मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खान | ( हृदाइके बख्रिशश )
  2. उस्ताजे ज़मन हज़रते मौलाना हसन रज़ा ख़ान ( जौके ना'त ) 
  3. ख़लीफ़ए आ'ला हज़रत , मद्दाहुल हबीब हज़रते मौलाना जमीलुर्रहमान रज़वी ( क़बालए बखिशश )
  4. शहज़ादए आ'ला हज़रत , ताजदारे अहले सुन्नत हुजूर मुफ्तिये आ'ज़मे हिन्द मौलाना मुस्तफा रज़ा खान ( सामाने बख्शिश ) 
  5. शहज़ादए आ'ला हज़रत , हुज्जतुल इस्लाम हज़रते मौलाना हामिद रज़ा खान ( बयाजे पाक )
  6. ख़लीफ़ए आ'ला हज़रत सदरुल अफ़ाज़िल हज़रते अल्लामा मौलाना सय्यिद मुहम्मद नईमुद्दीन मुरादाबादी ( रियाजुन्नईम )
  7. मुफस्सिरे शहीर हकीमुल उम्मत हज़रते मुफ्ती अहमद यार ख़ान वगैरा । ( दीवाने सालिक ) 
मजीद एक सुवाल का जवाब देते हुवे इरशाद फरमाते हैं : अगर गैरे आलिम शाइर का कलाम पढ़ना सुनना चाहें तो किसी माहिरे फ़न सुन्नी आलिम से उस कलाम की पहले तस्दीक करवा लीजिये । इस तरह ईमान की हिफ़ाज़त में मदद मिलेगी , वरना कहीं ऐसा न हो कि किसी कुफ्रिय्या शे'र के मा'ना समझने के बा वुजूद उस की ताईद करते हुवे झूमने और ना'रहाए दादो तहसीन बुलन्द करने के सबब ईमान के लाले पड़ जाएं । गैरे आलिम को ना'तिया शाइरी से अव्वलन बचना ही चाहिये और इन अहम मसाइल के इल्म से कब्ल अगर कुछ कलाम लिख भी लिया है तो जब तक अपने तमाम कलाम के हर हर शे'र की किसी फ़ने शे'री के माहिर आलिमे दीन से तफ्तीश न करवा ले उस वक़्त तक पढ़ने और छापने से मुज्तनिब ( दूर ) रहे । मेरे आका आला हज़रत चूंकि पाए के आलिमे दीन थे , आप के शे'र का हर मिस्रअ ऐन कुरआनो हदीस के मुताबिक़ हुवा करता था , लिहाज़ा बतौरे तहदीसे ने मत अपने मुबारक कलाम के बारे में एक रुबाई इरशाद फ़रमाते हैं :

 हूं अपने कलाम से निहायत महजूज़ बे जा से है अल मिन्नुतुल्लाह महफूज़ से मैं ने ना'त गोई सीखी कुरआन या'नी रहे अहकामे शरीअत मल्हूज़ 

ना'त ख्वानी और नजराना 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! ना'त पढ़ना सुनना यक़ीनन निहायत उम्दा इबादत है मगर कबूलिय्यत की कुन्जी इख्लास है , ना'त शरीफ़ पढ़ने पर उजरत लेना देना हराम और जहन्नम में ले जाने वाला काम है 
रज़ा जो दिल को बनाना था जल्वा गाहे हबीब तो प्यारे ! कैदे खुदी से रहीदा होना था 
ना'त शरीफ़ शुरू करने से कब्ल या दौराने ना'त जब कोई नज़राना ले कर आना शुरू हो उस वक्त मुनासिब ख़याल फ़रमाएं तो इस तरह एलान फ़रमा दीजिये : 
प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! दा'वते इस्लामी की ना'त ख्वां इस्लामी बहनों के लिये मदनी मर्कज़ की तरफ़ 
से हिदायत है कि वोह किसी किस्म का नज़राना , लिफ़ाफ़ा या तोहफ़ा ख़्वाह वोह पहले या आखिर में या दौराने ना'त मिले क़बूल न करे । हम अल्लाह तआला की आजिज़ व नातुवां बन्दियां हैं । बराहे करम ! नज़राना दे कर ना'त ख़्वां इस्लामी बहन को इम्तिहान में मत डालिये , रकम आती देख कर अपने दिल को काबू में रखना मुश्किल होता है । ना'त ख्वां इस्लामी बहन को इख्लास के साथ सिर्फ अल्लाह और उस के प्यारे रसूल صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ की रज़ा की तलब में ना'त शरीफ़ पढ़ने दें , लिहाज़ा नोटों की बरसात में नहीं बल्कि बारिशे अन्वार व तजल्लियात में नहाते हुवे ना'त शरीफ़ पढ़ने दें और आप भी अदब के साथ बैठ कर ना'ते पाक सुनें । 
मुझ को दुन्या की दौलत न ज़र चाहिये शाहे कौसर की मीठी नज़र चाहिये 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! ना'त ख्वानी में मिलने वाला नज़राना जाइज़ भी होता है और नाजाइज़ भी । चुनान्चे , इस हवाले से शैखे तरीक़त , अमीरे अहले सुन्नत फ़रमाते हैं : मेरे आका आ'ला हज़रत , इमामे अले सुन्नत , मुजद्दिदे दीनो मिल्लत , परवानए शम्ए रिसालत मौलाना शाह इमाम अहमद रज़ा खा़न की ख़िदमत में सुवाल हुवा : जैद ने अपने पांच रूपे फ़ीस मौलूद शरीफ़ की पढ़वाई के मुकर्रर कर रखे हैं , बिगैर पांच रूपिया फ़ीस के किसी के यहां जाता नहीं । 
मेरे आका आ'ला हज़रत رحمۃ اللہ علیہ ने जवाबन इरशाद फ़रमाया : ज़ैद ने जो अपनी मजलिस ख्वानी खुसूसन राग से पढ़ने की उजरत मुकर्रर कर रखी है नाजाइज़ व हराम है इस का लेना इसे हरगिज़ जाइज़ नहीं , इस का खाना सराहतन हराम खाना है । इस पर वाजिब है कि जिन जिन से फ़ीस ली है याद कर के सब को वापस दे , वोह न रहे हों तो उन के वारिसों को फेरे , पता न चले तो इतना माल फ़क़ीरों पर तसद्दुक करे और आइन्दा इस हराम खोरी से तौबा करे तो गुनाह से पाक हो । अव्वल तो सय्यिदे आलम صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ  का ज़िक्रे पाक खुद उम्दा ताआत व अजल्ल इबादात से है और ताअत व इबादत पर फ़ीस लेनी हराम । सानिय्यन बयाने साइल से जाहिर कि वोह अपनी शे'र ख्वानी व ज़मज़मा सन्जी ( या'नी राग और तरन्नुम से पढ़ने ) की फ़ीस लेता है येह भी महज़ हराम । फ़तावा आलमगीरी में है : गाना और अश्आर पढ़ना ऐसे आ'माल हैं कि इन में किसी पर उजरत लेना जाइज़ नहीं ।

तै न किया हो तो 

प्यारी प्यारी इस्लामी बहनो ! हो सकता है कि किसी के जेह्न में येह बात आए कि येह फ़तवा तो उन के लिये है जो पहले से तै कर लेती हैं , हम तो तै नहीं करतीं , जो कुछ मिलता है वोह तबरूंकन ले लेती हैं , इस लिये हमारे लिये जाइज़ है । उन की ख़िदमत में सरकारे आ'ला हज़रत  رحمۃ اللہ علیہ का एक और फ़तवा हाज़िर है , समझ में न आए तो तीन बार पढ़ लीजिये : तिलावते कुरआने अज़ीम ब गरजे ईसाले सवाब व ज़िक्र शरीफ़ मीलादे पाक हुजूर सय्यदे आलम  صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ ज़रूर मिन जुम्ला इबादात व ताअत हैं तो इन पर इजारा भी ज़रूर हराम व महजूर ( या'नी नाजाइज़ ) । और इजारा जिस तरह सरीह अक्दे ज़बान ( या'नी वाज़ेह कौल व करार ) से होता है , उर्फन शर्ते मा'रूफ़ व मा'हूद ( या'नी राइज शुदा अन्दाज़ ) से भी हो जाता है मसलन पढ़ने पढ़वाने वालों ने ज़बान से कुछ न कहा मगर जानते हैं कि देना होगा ( और ) वोह ( पढ़ने वाले भी ) समझ रहे हैं कि “ कुछ " मिलेगा , उन्हों ने इस तौर पर पढ़ा , इन्हों ने इस निय्यत से पढ़वाया , इजारा हो गया , और अब दो वज्ह से हराम हुवा , एक तो ताअत ( या'नी इबादत ) पर इजारा येह खुद हराम , दूसरे उजरत अगर उर्फन मुअय्यन नहीं तो इस की जहालत से इजारा फ़ासिद , येह दूसरा हराम ।
लेने वाला और देने वाला दोनों गुनहगार होंगे । 
इस मुबारक फ़तवे से रोजे रौशन की तरह ज़ाहिर हो गया कि साफ़ लफ़्ज़ों में तै न भी हो तब भी जहां Understood हो कि चल कर महफ़िल में कुरआने पाक , आयते करीमा , दुरूद शरीफ़ या ना'त शरीफ़ पढ़ते हैं , कुछ न कुछ मिलेगा रकम न सही “ सूट पीस " वगैरा का तोहफ़ा ही मिल जाएगा और महफ़िल करवाने वाली भी जानती है कि पढ़ने वाली को कुछ न कुछ देना ही है । बस नाजाइज़ व हराम होने के लिये इतना काफ़ी है कि येह " उजरत " ही है और फ़रीकैन ( या'नी देने और लेने वाले ) दोनों गुनहगार ।

 “ तसव्वुरे मदीना कीजिये " के 14 हुरूफकी निरखत से ना'त पढ़ने की चौदह निय्यतें 

  1. अल्लाह व रसूल की रज़ा के लिये 
  2. हत्तल वस्अ बा वुजू 
  3. किब्ला रू
  4. आंखें बन्द किये 
  5. सर झुकाए 
  6. गुम्बदे खज़रा 
  7. बल्कि मकीने गुम्बदे खज़रा का तसव्वुर बांध कर ना'त शरीफ़ पढूं 
  8. सुनूंगी 
  9. मौकअ की मुनासबत से वसाइले बख्रिशश सफ़हा 11 पर मौजूद ना'त ख़्वान के लिये दिया गया एलान करने की सआदत हासिल करूंगी 
  10. किसी की आवाज़ भली न लगी तो उस को हकीर जानने से बचूंगी 
  11. मज़ाकन किसी कम सुरीली आवाज़ वाली की नकल नहीं उतारूंगी 
  12. ना'त ख्वान इस्लामी बहनें  
  13. कोई दूसरी सलातो सलाम पढ़ रही होगी तो बीच में पढ़ने की जल्दी मचा कर खुद शुरूअ न कर के उस की ईज़ा रसानी से बचूंगी 
  14. इनफ़िादी कोशिश के जरीए दा'वते इस्लामी के सुन्नतों भरे इजतिमाआत , मदनी काफ़िले , मदनी इन्आमात वगैरा की तरगीब दूंगी । 

 " ना'ते रसूले पाक " के 10 हुरूफ़की निस्बत से ना'त सुनने की दस निय्यतें

  1. अल्लाह व रसूल की रज़ा के लिये
  2. हत्तल वस्अ बा वुजू 
  3. क़िब्ला रू 
  4. आंखें बन्द किये 
  5. सर झुकाए
  6. दो जानू बैठ कर 
  7.  गुम्बदे खज़रा 
  8. बल्कि मकीने गुम्बदे खज़रा का तसव्वुर बांध कर ना'त शरीफ़ सुनूंगी 
  9. रोना आया और रियाकारी का ख़द्शा महसूस हुवा तो रोना बन्द करने के बजाए रियाकारी से बचने की कोशिश करूंगी 
  10. किसी को रोती तड़पती देख कर बद गुमानी नहीं करूंगी ।

गानों की आदी ना'त ख्वा कैसे बनी ? 

बहावल पुर ( पंजाब , पाकिस्तान ) बस्ती महमूदाबाद की मुक़ीम इस्लामी बहन के मक्तूब का खुलासा है : मैं नमाज़ जैसी अज़ीम इबादत जो हर आकिल व बालिग मुसलमान मर्द व औरत पर फ़र्ज़ है उस से गाफ़िल थी , इस के इलावा बहुत सी बुराइयों का शिकार हो कर अपनी ज़िन्दगी के लेलो नहार बसर कर रही थी । गाने सुनने , गुनगुनाने का बहुत शौक़ था , वोह ज़बान जो अल्लाह की अज़ीम ने'मत है उसे ज़िक्रो शुक्र में मसरूफ़ रखने के बजाए गीत गाने में आलूदा कर के अपनी ज़िन्दगी के शबो रोज़ जाएअ कर रही थी । ब ज़ाहिर ज़िन्दगी के दिन बड़े सुहाने गुज़र रहे थे मगर दर हकीक़त मैं अपनी क़ब्रो आख़िरत बरबाद कर रही थी और बद किस्मती से गाने बाजे सुनने और गुनगुनाने के अज़ाबात से बे ख़बर थी । 
मेरे दिल पर छाई गफलत की तारीकियां फ़िक्रे आखिरत की किरनों से कुछ यूं दूर हुई कि एक मरतबा अम्मी जान के हमराह दा'वते इस्लामी के तहत होने वाले तीन रोज़ा बैनल अक्वामी सुन्नतों भरे इजतिमाअ की आखिरी निशस्त में शिर्कत की सआदत मिल गई , ज़िन्दगी में पहली बार दा'वते इस्लामी के मुश्कबार मदनी माहोल में हया की बहार देखी तो दिल शाद हो गया , कसीर इस्लामी बहनें मदनी बुर्कअ ओढ़े हुवे थीं , उन के अख़्लाक़ व किरदार भी बहुत प्यारे थे , मजीद उस सुन्नतों भरे इजतिमाअ में जब पन्दरहवीं सदी की अजीम इल्मी व रूहानी शख्सिय्यत , शैखे तरीक़त , अमीरे अहले सुन्नत बानिये दा'वते इस्लामी हज़रते अल्लामा मौलाना अबू बिलाल मुहम्मद इल्यास अत्तार कादिरी रज़वी ज़ियाई का ग़ाफ़िल दिलों को बेदार करने वाले सुन्नतों भरे बयान का आगाज हुवा तो मैं हमा तन गोश हो गई , 

अल्फ़ाज़ में न जाने कैसी तासीर थी कि दिल की कैफ़िय्यत ही बदल गई पेशकश : मजलिसे अन मीनतुल इल्लिाच्या ( दावते इक्लासी )42 बारगाहे रिसालत में सहाबियात के नजराने और एक कल्बी सुकून का एहसास होने लगा , बयान के इख़्तिताम पर जब अमीरे अले सुन्नत ने बारगाहे इलाही में दुआ शुरू की तो दुआ के दौरान अपने गुनाहों को याद कर के बे साख़्ता मेरी आंखों से अश्कों का सैलाब उमड़ आया और मैं ने फूट फूट कर रोना शुरू कर दिया , जूं जूं अश्क बहते गए मेरे सीने से गुनाहों का बार कम होता महसूस हुवा । अल ग़रज़ मैं ने अपनी साबिक़ा बद आ'मालियों और बिल खुसूस गाने बाजे सुनने , गुनगुनाने से तौबा की और दा'वते इस्लामी के हया से मा'मूर सुन्नतों भरे मदनी माहोल से वाबस्ता होने का पुख्ता इरादा कर लिया , यूं इस रूह परवर सुन्नतों भरे इजतिमाअ से फ़िक्रे आख़िरत की सौगात ले कर घर लौटी , मैं ने अलाके में होने वाले इस्लामी बहनों के सुन्नतों भरे इजतिमाअ का पता मा'लूम किया और उस में शिर्कत करना अपना मा'मूल बना लिया , जिस की बरकत से मजीद मेरे जज्बे को चार चांद लग गए , मेरी गाने की आदते बद रुख्सत हो गई और मैं ना'ते रसूले मक्बूल सुनने , पढ़ने की सआदत पाने लगी , पहले गाने गा कर अपने लिये हलाकत का सामान इकठ्ठा करती थी मगर अब गाने के बेहूदा अश्आर की जगह ना'ते रसूले मक्बूल ज़बान पर जारी रहने लगी , मदनी बुर्कअ लिबास का हिस्सा बन गया , मदनी इन्आमात पर अमल के साथ साथ दूसरों तक नेकी की दा'वत पहुंचाने में हिस्सा भी लेने लगी और अब ता दमे तहरीर अलाकाई सतह पर खादिमा होने की हैसिय्यत से सुन्नतों की ख़िदमत आम करने में मश्गूल हूं ।
صَلُّوْاعَلَی الْحَبِیْب! صَلَّی اللّٰهُ عَلٰی مُحمَّد

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